सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥48॥
सहजम्-किसी की प्रकृति से उत्पन्न; कर्म-कर्त्तव्य; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; स-दोषम् दोषयुक्त; अपि यद्यपि; न-त्यजेत्-त्यागना नहीं चाहिए; सर्व-आरम्भाः -सभी प्रयासों को; हि-वास्तव में; दोषेण-बुराई के साथ; धूमेन–धुएँ से; अग्निः -अग्नि; इव-सदृश; आवृताः-आच्छादित।
BG 18.48: किसी को भी अपनी प्रकृति से उत्पन्न कर्त्तव्यों का परित्याग नहीं करना चाहिए चाहे कोई उनमें दोष भी क्यों न देखता हो। हे कुन्ती पुत्र! वास्तव में सभी प्रकार के उद्योग कुछ न कुछ बुराई से आवृत रहते हैं जैसे आग धुंए से ढकी रहती है।
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कभी-कभी लोग कर्त्तव्य पालन से पीछे हटते हैं क्योंकि वे इनमें दोष देखते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि कोई भी कार्य दोष रहित नहीं है। जिस प्रकार स्वाभाविक रूप से धुआँ अग्नि के ऊपर रहता है। उदाहरणार्थ हम लाखों जीवाणुओं की हत्या किए बिना श्वास नहीं ले सकते। अगर हम कृषि के लिए खेत जोतते हैं तब हम असंख्य सूक्ष्म जीवों को नष्ट करते हैं। यदि हम व्यापार में प्रतिस्पर्धा करते हुए सफलता प्राप्त करते हैं तब हम अन्य लोगों को धन सम्पदा से वंचित करते हैं। जब हम भोजन करते हैं तब हम दूसरों को भोजन से वंचित करते हैं क्योंकि स्व-ध म क्रियाशीलता पर बल देता है इसलिए यह दोषों से रहित नहीं हो सकता। लेकिन स्व-धर्म के लाभ उसके दोषो से कहीं अधिक हैं। इसके सबसे महत्वपूर्ण लाभ का उदाहरण मार्क अलबियन जो हार्वड बिजनेस स्कूल के प्राध्यापक थे ने 'मेकिंग ए लाइफ, मेकिंग ए लिविंग' नामक पुस्तक में प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने एक अध्ययन के अंतर्गत वर्ष 1960 से 1980 तक की अवधि के दौरान एक व्यावसायिक विद्यालय के पन्द्रह सौ स्नातकों के भविष्य पर दृष्टि रखी। आरम्भ में स्नातकों के दो समूह बनाये गये। 'क' श्रेणी में उन स्नातकों को रखा जाना था जो सर्वप्रथम धन सम्पदा अर्जित करना चाहते थे ताकि वे अपने वित्तीय प्रयोजनों पर ध्यान देने के पश्चात उन कार्यों को बाद में संपन्न कर सकें जो उनकी इच्छा के अनुरूप थे। इस श्रेणी में 83 प्रतिशत स्नातक सम्मिलित हुए। 'ख' श्रेणी का चयन उन स्नातकों ने किया जिन्होंने सर्वप्रथम अपनी रुचि और हित के कार्यों की ओर ध्यान दिया और उसी के अनुरूप प्रयास किए क्योंकि वे पूर्ण रूप से आश्वस्त थे कि इससे धन संपदा अपने आप उन्हें प्राप्त होगी। 'ख' श्रेणी में सत्रह प्रतिशत स्नातक सम्मिलित हुए थे। बीस वर्षों के पश्चात एक सौ बीस लोग करोड़पति बनें जिनमें से केवल एक 'क' श्रेणी के स्नातकों में था जो पहले धनोपार्जन करना चाहते थे और एक सौ स्नातक 'ख' श्रेणी के थे जिन्होंने सर्वप्रथम अपनी रुचि के अनुसार कार्य संपन्न किए थे। अत्यधिक संख्या में धनवान बने लोगों ने अपने कार्यों के प्रति अति कृतज्ञता और निष्ठा प्रकट की। जिनकों सम्पन्न करने में वे तल्लीनता से व्यस्त रहे। मार्क अलिबयन ने निष्कर्ष निकाला कि अधिकतर लोग यह समझते हैं कि काम और मनोरंजन के बीच में अंतर है। लेकिन यदि वे अपनी पसंद का कार्य करते हैं तब कार्य मनोरंजन बन जाता है और फिर उन्हें अपने जीवन में कभी अपने काम को अगले दिन के लिए टालना नहीं पड़ता। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को ऐसे काम को करने और उसका त्याग न करने का उपदेश देते हैं जो उसके स्वभाव के अनुकूल हो, भले ही वह दोषपूर्ण क्यों न हो। लेकिन कार्य को उन्नत करने के लिए उसे समुचित चेतना के साथ सम्पन्न किया जाना चाहिए जिसका वर्णन अगले श्लोक में किया जाएगा।